मानव वन्यजीव संघर्ष उत्तराखंड में -दुर्गा सिंह भंडारी
मानव वन्यजीव संघर्ष अनादि काल से चला आ रहा है । समय काल और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार यह विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता रहता है। वन्यजीवों की उपस्थिति एवं उनका व्यवहार जब नकारात्मक रूप में मानव जाति के लिए खतरा उत्पन्न करता है तो वह सुरक्षा एवं विभिन्न हितों को प्रभावित करता है। उत्तराखंड के संदर्भ में भी मानव वन्यजीव संघर्ष का इतिहास भी बहुत पुराना है. प्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट की पुस्तकों :मैनईटर ऑफ कुमाऊं एवं मैन ईटर ऑफ रुद्रप्रयाग में यह स्पष्ट रूप से वर्णित है।
उत्तराखंड में मानव वन्यजीव संघर्ष निमित्त प्रकार से है :
1-बंदरों का आतंक :गांव में बंदरों द्वारा फसल एवं बागानों को नष्ट करना कई बार बच्चों को भी काट देते हैं.
2-जंगली सूअरों का खतरा : जंगली सूअर झुंडों में आकर फसल को अत्यधिक नुकसान पहुंचाते हैं। कभी मनुष्यों पर भी आक्रमण करते हैं।
3-हाथियों का उत्पात: उत्तराखंड के तराई क्षेत्रों में हाथी का उत्पात बना रहता है। इससे जन धन की हानि होती है।
4-हिंसक वन्यजीवों जैसे बाघ, गुलदार, भालू आदि का खतरा उत्तराखंड में भयावह रूप लेता जा रहा है । इनके द्वारा मवेशियों को मारना आम बात है । गुलदार द्वारा मनुष्य विशेषकर बच्चों एवम् महिलाओं पर आक्रमण की घटनाएं तेजी से बढ़ी है।
वर्तमान में उत्तराखंड के समस्त पहाड़ी क्षेत्र में गुलदार का आतंक लगातार बढ़ता जा रहा है। ग्रामीण इलाकों में लोगों का घरों से निकलना दूभर हो रहा है। बाघ एवं गुलदार दिनदहाड़े मवेशियों एवं मासूम लोगों को अपना ग्रास बना चुके हैं। गढ़वाल एवं कुमाऊँ के पहाड़ी जनपदों में गुलदार का डर लोगों के दिलों दिमाग में समा चुका है।पौड़ी गढ़वाल के मजगांव भरतपुर एवं डबरा गांव इस आतंक के चलते पूरी तरह खाली हो चुके हैं। गुलदार के आतंक के कारण एक बार तो बागेश्वर में रात्रि कर्फ्यू लगाना पड़ा था। गुलदार की समस्या पर वन विभाग एवं उत्तराखंड सरकार की कार्रवाई भी उत्तराखंड की जनता के मन मस्तिक से गुलदार का भय निकालने में नाकाफी साबित हुए हैं।
समस्या समाधान का रास्ता:
मानव वन्यजीव संघर्ष विशेष तौर पर गुलदार का आतंक का कोई सीधा साधा समाधान नहीं है। बल्कि इसे विभिन्न स्तरों पर स्थानीय परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए निपटा जाना चाहिए।
ग्रामीणों एवं ग्राम स्तर पर कार्रवाई.:
1-अपने घर के आसपास की झाड़ियों को काटे एवम साफ रखें।
2-स्कूल जाते आते वक्त बच्चे टोली बनाकर जाएं।
3-ग्रामसभा संवेदनशील जगहों पर जाली नुमा तार से सुरक्षा दीवार की व्यवस्था करें।
4-जंगलों में फलदार पौधे लगाने की मुहिम को बढ़ावा दें।
5-ग्रामसभा जंगलों में जगह-जगह खाल चाल खुदवाए।
6-ग्रामसभा स्तर पर इन कार्यों की देखरेख के लिए मानव वन्यजीव संघर्ष समाधान समिति गठित की जाए। यह समिति वन विभाग एवं जिला समिति के मार्गदर्शन में ग्रामीणों को जागरूक करने का कार्य भी करे।
राज्य सरकार के स्तर पर कार्रवाई:
1-वन विभाग को मानव वन्यजीव संघर्ष के समाधान हेतु स्थानीय जरूरतों के मुताबिक ट्रेनिंग दी जाए एवं आवश्यक उपकरण व बजट की व्यवस्था की जाय।
2-संवेदनशील गांव में जाली नुमा तार से ग्राम सुरक्षा घेराबंदी की व्यवस्था हो।
3-बाघ और गुलदार की गणना करवाई जाए तथा कॉलर आईडी लगाई जाए जिससे गुलदार के आवागमन व उनके व्यवहार की निगरानी की जा सके।
4-जंगली जानवरों द्वारा ग्रामीण की मौत पर उचित मुआवजा दिया जाए बीमा कंपनियों के साथ वन विभाग मिलकर कोई मुआवजा योजना बना सकता है.
5- स्वयंसेवी संस्थाओं को समाधान के विभिन्न कार्यों में भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
6- जिला स्तर पर कार्यों के समन्वय के लिए एक मानव वन्यजीव संघर्ष समाधान समिति का गठन किया जाए। जिसमें जिला प्रशासन, वन विभाग, जिला पंचायत, पुलिस, आपदा प्रबंधन आदि का प्रतिनिधित्व हो।
* लेखक भारत सरकार के उद्यम में महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत है एवम पहाड़ों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकारों से जुड़े रहते हैं।